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Saturday, August 25, 2012

ॐ साईं राम


दादा साहेब खापर्डे जी की गृहस्थी बहुत बड़ी थी और एक समय में उसमें बच्चों को छोड़ कर लगभग ५० लोग हो जाते थे। दादा साहेब और उनकी पत्नि, तीन पुत्र, उनकी पत्नियाँ, तीन अन्य परिवार जिन्हें शरण दी गई थी, लगभग १२ से १५ विद्यार्थी, जो अपनी पढ़ाई पूरा करने आते थे, दो रसोइये और उनकी पत्नियाँ, दो मुँशी, एक चौकीदार, आठ साएस जो कि घोड़ों की देखभाल करते थे, दो बैलगाड़ी चालक, एक ग्वाला, दो नौकरानियाँ, और औसतन तीन मेहमान इस गिनती में शामिल थे।

अब इतनी बड़ी गृहस्थी का सँचालन करने में लक्ष्मीबाई की चौकस आँखें सभी का समान रूप से ध्यान रखती थीं। वह बड़े छोटे में कोई भेद नहीं करती थी। वह घर के सब बच्चों के लिए जिनमें उनके अपने बच्चे भी सम्मिलित थे, खाना बनाती थीं और उन्हें खिलाती थीं। यदि कोई बच्चा बीमार हो जाता था तो वह स्वयँ उसकी देखभाल करती थीं।

एक बार निलकारी नामक व्यक्ति की जाँघ पर एक फोड़ा हो गया और साथ ही तेज़ बुखार भी। उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया। लक्ष्मीबाई उसका भोजन ले कर खुद अस्पताल जाती थीं और स्वयँ खिलाती भी थीं। उसकी बीमारी दो मॅास तक लम्बी खिंची। वह सम्पूर्ण जीवन लक्ष्मी बाई का आभारी रहा और उसने कहा-" लक्ष्मीबाई ने जो मेरे लिए किया वह मेरी अपनी माँ भी नहीं कर पाती और उनकी दया के बिना मैं जीवित नहीं बचता। "


इस प्रकार के कई उदाहरण मिलते हैं। उन्होंने स्वँय बालकृष्ण नेने की पत्नि, जिन्हें खापर्डे ने शरण प्रदान की थी, उनके लिए "दोहाले जेवान"(गोदभराई)की व्यवस्था की, वह सभी भोज्य पदार्थ जिनकी इच्छा एक गर्भवती स्त्री करती है, तैयार किए, उसे एक सुन्दर साड़ी में सजाया और उपहार भी दिए। इस सारे आयोजन में कुछ भी असामान्य नहीं था क्योंकि यह लक्ष्मीबाई के स्वभाव में सम्मिलित था।


जय साईं राम