ॐ साईं राम
एक बार दादा साहेब अपने परिवार के
साथ शिरडी जो आए तो बाबा के प्रेम में सरोबार हो गए। खापर्डे कोई मामूली
आदमी नहीं थे। वह अत्यँत विद्वान थे, तो भी बाबा के सन्मुख श्रद्धा से
नत्तमस्तक होते थे। अँग्रेज़ी शिक्षा में निपुण, सर्वोच्च विधान परिषद और
राज्य सभा में उनका प्रखर विवादी के रुप में उच्च रुतबा था और विधान सभा को
वह अपनी वाकपटुता से हिला देते थे। तो भी साईं के सन्मुख वह मूक ही रहते
थे। बाबा के अनेकों भक्त थे, किन्तु खापर्डे, गोपालराव बूटी और लक्ष्मण
कृष्ण नूलकर ही केवल बाबा के सन्मुख चुप रहते थे। दूसरे तो बाबा से बातें
करते, कुछ वाद विवाद में उलझे रहते तो कुछ जो भी उनके दिमाग में आता, बोल
देते थे। किन्तु ये तीनों सदैव पूर्णतः मौन धारण किए रहते थे। बोलना तो दूर
की बात है बाबा के हर कथन से उनकी सहमति होती थी। उनकी विनम्रता और ध्यान
देने की शिष्टता अवर्णनीय थी।
" दादासाहेब, विद्यारण्य स्वामी
द्घारा रचित पंचदशी नामक प्रसिदृ संस्कृत ग्रन्थ, जिसमें अद्घैतवेदान्त का
दर्शन है, उसका विवरण दूसरों को तो समझाया करते थे, परन्तु जब वे बाबा के
समीप मस्जिद में आये तो वे एक शब्द का भी उच्चारण न कर सके । यथार्थ में
कोई व्यक्ति, चाहे वह जितना वेदवेदान्तों में पारँगत क्यों न हो, परन्तु
ब्रह्मपद को पहुँचे हुए व्यक्ति के समक्ष उसका शुष्क ज्ञान प्रकाश नहीं दे
सकता । दादा चार मास तथा उनकी पत्नी सात मास वहाँ ठहरी । वे दोनों अपने
शिरडी-प्रवास से अत्यन्त प्रसन्न थे । श्री मती खापर्डे श्रद्घालु तथा
पूर्ण भक्त थी, इसलिये उनका साई चरणों में अत्यन्त प्रेम था । प्रतिदिन
दोपहर को वे स्वयं नैवेद्य लेकर मस्जिद को जाती और जब बाबा उसे ग्रहण कर
लेते, तभी वे लौटकर आपना भोजन किया करती थी । बाबा उनकी अटल श्रद्घा की
झाँकी का दूसरों को भी दर्शन कराना चाहते थे ।"- अध्याय २७, श्री साईं
सत्चरित्र।
गुरू द्वारा निर्देश देने के तरीके
अनेकों हैं किन्तु बाबा का तरीका अद्भुत ही था। वे अपनी कृपा वृष्टि इस
प्रकार करते थे कि वह अन्तरमन की गहराई में सहज ही पैठ जाते थे।
" एक दिन दोपहर को श्रीमति खापर्डे
साँजा, पूरी, भात, सार, खीर और अन्य भोज्य पदार्थ का नेवैद्य लेकर मसजिद
में आई । और दिनों तो भोजन प्रायः घंटों तक बाबा की प्रतीक्षा में पड़ा
रहता था, परन्तु उस दिन वे तुरंत ही उठे और भोजन के स्थान पर आकर आसन ग्रहण
कर लिया और थाली पर से कपड़ा हटाकर उन्होंने रुचिपूर्वक भोजन करना आरम्भ
कर दिया ।"- अध्याय २७ ।
दूसरे कई और भी नेवैद्य थे। कई इस
नेवैद्य से अधिक आलीशान थे, जो दूसरे भक्तों के द्वारा प्राप्त होते थे पर
घँटो तक अनछुए ही पड़े रहते थे। तब इस महिला के साथ पक्षपात क्यों? यह एक
सँसारी मनुष्य का व्यवहार तो हो सकता है पर एक सँत के मस्तिष्क को यह बात
किस प्रकार छू सकती है? अतः माधवराव ने बाबा को कनखियों से देखा और जानना
चाहा कि बाबा ने यह भेदभाव क्यों किया?
" तब शामा कहने लगे कि यह पक्षपात
क्यों? दूसरो की थालियों पर तो आप दृष्टि तक नहीं डालते, उल्टे उन्हें फेंक
देते है, परन्तु आत इस भोजन को आप बड़ी उत्सुकता और रुचि से खा रहे है ।
आज इस बाई का भोजन आपको इतना स्वादिष्ट क्यों लगा । यह विषय तो हम लोगों के
लिये एक समस्या बन गया है ।"
" तब बाबा ने इस प्रकार समझाया-
सचमुच ही इस भोजन में एक विचित्रता है । पूर्व जन्म में यह बाई एक व्यापारी
की मोटी गाय थी, जो बहुत अधिक दूध देती थी । पशुयोलि त्यागकर इसने एक माली
के कुटुम्ब में जन्म लिया । उस जन्म के उपरान्त फिर यह एक क्षत्रिय वंश
में उत्पन्न हई और इसका ब्याह एक व्यापारी से हो गया । दीर्घ काल के
पश्चात् इनसे भेंट हुई है । इसलिये इनकी थाली में से प्रेमपूर्वक चार ग्रास
तो खा लेने दो । ऐसा बतला कर बाबा ने भर पेट भोजन किया और फिर हाथ मुँह
धोकर और तृप्ति की चार-पाँच डकारें लेकर वे अपने आसन पर पुनः आ बिराजे ।
फिर श्रीमती खापर्डे ने बाबा को
नमन किया और उनके पाद-सेवन करने ली । बाबा उनसे वार्तालाप करने लगे और
साथ-साथ उनके हाथ भी दबाने लगे । इस प्रकार परस्पर सेवा करते देख शामा
मुस्कुराने लगा और बोला कि देखो तो, यह एक अदभुत दृश्य है कि भगवान और भक्त
एक दूसरे की सेवा कर रहे है । उनकी सच्ची लगन देखकर बाबा अत्यन्त कोमल तथा
मृदु शब्दों मे अपने श्रीमुख से कहने लगे कि अब सदैव राजाराम, राजाराम का
जप किया करो और यदि तुमने इसका अभ्यास क्रमबदृ किया तो तुम्हे अपने जीवन के
ध्येय की प्राप्ति अवश्य हो जायेगी । तुम्हें पूर्ण शान्ति प्राप्त होकर
अत्यधिक लाभ होगा । आध्यात्मिक विषयों से अपरिचित व्यक्तियों के लिये यह
घटना साधारण-सी प्रतीत होगी, परन्तु शास्त्रीय भाषा में यह शक्तिपात के नाम
से विदित है, अर्थात् गुरु द्घारा शिष्य में शक्तिसंचार करना । कितने
शक्तिशाली और प्रभावकारी बाबा के वे शब्द थे, जो एक क्षण में ही हृदय-कमल
में प्रवेश कर गये और वहाँ अंकुरित हो उठे ।" -अध्याय -२७ ।
श्री समर्थ साईं इतने करूणाशील थे,
दीनों के रक्षक थे। उन्होंने अपने भक्तों की इच्छाओं को पूर्ण किया और
उनके हितों को सुनिश्चित किया।
आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰
जय साईं राम