ॐ साईं राम
स्वभाविक रूप से लक्ष्मीबाई का दादा साहेब से विवाह बहुत छोटी आयु में ही हो गया होगा जैसा कि उस समय का प्रचलन था। उस समय उनके ससुर ब्रिटिश सरकार के राज में एक मामलेदार थे और उनके पास नाम और धन धान्य सब कुछ था। बाद में जब दादा साहेब वकील बन गए और उन्होंने वकालत शुरू की तब जल्द ही उन्होंने अपना रुतबा स्थापित कर लिया और उनकी वकालत खूब चलने लगी। अतः यह सरलता से कहा जा सकता है कि अपने पति के घर वह खुशहाली और समृद्धि के वातावरण में बड़ी हुई। साथ ही स्वभाव से वह दयालु थीं और मुक्त हस्त से खर्च करती थीं। घर में भोजन ५० लोगों के लिए और बहुतायत में बनता था और चार पाँच लोगों के लिए बच भी जाता था।
उनके बच्चे समय की रीति के अनुसार बुद्धिमान साबित हुए। वह अपने बच्चों को कभी सूती या फटे कपड़े नहीं पहनने देती थीं। वे हमेशा ९-१०" के सिल्क के बॉडर वाली धोती और सिल्क का कुर्ता पहनते थे। अगर कोई वस्त्र ज़रा सा भी फटता तो उसे नहीं पहना जाता था। दूध घड़ों के हिसाब से नापा जाता था और उसकी आपूर्ति बहुतायत में थी। घी कभी भी किसी भोज्य पदार्थ में अलग से नहीं डाला जाता था अपितु परिवार के सदस्यों और सभी नौकरों तक को तीन वटियों ( लोहे के बने कटोरों ) में हर भोजन के साथ परोसा जाता था। घर के साधारण सदस्यों तक के लिए चटपटे और मिष्ठान उच्च गुणवत्ता के ही बनाए जाते थे।
इस प्रकार की समृद्धि को भोगने के बाद जब तिलक की गिरफ्तारी के बाद दादा साहेब के भाग्यका कुछ समय के लिए थोड़ा हृास हुआ तब बदली हुई परिस्थितियों में वह अच्छे से ढल नहीं पाईं। जैसा कि हमने "शिरडी डायरी के विषय में और जानकारी " नामक लेख जो कि पहले श्री साईं लीला में छप चुका है, उसमें देखा है कि लोकमान्य तिलक पर मुकद्दमा चला और उन्हें २२-७-१९०८ को विद्रोह के आरोप में छः साल की सज़ा हुई। दादा साहेब ने अचानक १३ अगस्त को निश्चय किया कि वह लोकमान्य की रिहाई के प्रयास के लिए इँग्लैंड जाएँगे और १५ अगस्त को वह समुद्री यात्रा से इँग्लैड रवाना हो गए। इसके पश्चात दादा साहेब के बड़े पुत्र जो कि उस समय गवर्नमैंट लॅा कॅालेज बम्बई में वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, अपनी माता को दादा साहेब की अचानक रवानगी के बारे में बता नहीं पाए और उनकी माता ने उन पर इसके बारे मे दोषारोपण किया। वह यह समझ नहीं पाईं कि समय बदल गया है।
दादा साहेब दो वर्ष से अधिक समय तक इँग्लैंड में रहे और वापस आने पर भी वह सरकार की चौकसी में ही थे। इसी लिए साईं बाबा ने उन्हें १९११-१२ में लगभग साढ़े तीन महीने तक शिरडी में ही रोक कर रखा। लक्ष्मीबाई भी दादा साहेब के साथ शिरडी में ही थीं और जैसा कि हमें श्री साईं सत्चरित्र से पता चलता है कि दादा साहेब शिरडी में लगभग चार मॅास ही रहे, और बाबा की आज्ञा मिलने पर उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया, परन्तु लक्ष्मीबाई वहाँ सात मॅास रहीं। अतः उन्हें परिस्थिति को समझने और उसे स्वीकारने में उन्हें लँबा समय लगा और वह स्वाभाविक रूप से उस समय प्रसन्न नहीं थीं। १-२-१९१२ को बाबा के द्वारा दीक्षित को लक्ष्मीबाई को २०० रुपये देने के लिए दिए गए निर्देश के विषय में १९२३-२४ में दादा साहेब ने जो पश्च दृष्टि दिखाई और कहा कि इसका उद्देश्य लक्ष्मीबाई को "दीनता" और "सब्र" का पाठ पढ़ाना था, उसे इसी पृष्ठभूमि और सँदर्भ में समझा जाना चाहिए।
जय साईं राम
स्वभाविक रूप से लक्ष्मीबाई का दादा साहेब से विवाह बहुत छोटी आयु में ही हो गया होगा जैसा कि उस समय का प्रचलन था। उस समय उनके ससुर ब्रिटिश सरकार के राज में एक मामलेदार थे और उनके पास नाम और धन धान्य सब कुछ था। बाद में जब दादा साहेब वकील बन गए और उन्होंने वकालत शुरू की तब जल्द ही उन्होंने अपना रुतबा स्थापित कर लिया और उनकी वकालत खूब चलने लगी। अतः यह सरलता से कहा जा सकता है कि अपने पति के घर वह खुशहाली और समृद्धि के वातावरण में बड़ी हुई। साथ ही स्वभाव से वह दयालु थीं और मुक्त हस्त से खर्च करती थीं। घर में भोजन ५० लोगों के लिए और बहुतायत में बनता था और चार पाँच लोगों के लिए बच भी जाता था।
उनके बच्चे समय की रीति के अनुसार बुद्धिमान साबित हुए। वह अपने बच्चों को कभी सूती या फटे कपड़े नहीं पहनने देती थीं। वे हमेशा ९-१०" के सिल्क के बॉडर वाली धोती और सिल्क का कुर्ता पहनते थे। अगर कोई वस्त्र ज़रा सा भी फटता तो उसे नहीं पहना जाता था। दूध घड़ों के हिसाब से नापा जाता था और उसकी आपूर्ति बहुतायत में थी। घी कभी भी किसी भोज्य पदार्थ में अलग से नहीं डाला जाता था अपितु परिवार के सदस्यों और सभी नौकरों तक को तीन वटियों ( लोहे के बने कटोरों ) में हर भोजन के साथ परोसा जाता था। घर के साधारण सदस्यों तक के लिए चटपटे और मिष्ठान उच्च गुणवत्ता के ही बनाए जाते थे।
इस प्रकार की समृद्धि को भोगने के बाद जब तिलक की गिरफ्तारी के बाद दादा साहेब के भाग्यका कुछ समय के लिए थोड़ा हृास हुआ तब बदली हुई परिस्थितियों में वह अच्छे से ढल नहीं पाईं। जैसा कि हमने "शिरडी डायरी के विषय में और जानकारी " नामक लेख जो कि पहले श्री साईं लीला में छप चुका है, उसमें देखा है कि लोकमान्य तिलक पर मुकद्दमा चला और उन्हें २२-७-१९०८ को विद्रोह के आरोप में छः साल की सज़ा हुई। दादा साहेब ने अचानक १३ अगस्त को निश्चय किया कि वह लोकमान्य की रिहाई के प्रयास के लिए इँग्लैंड जाएँगे और १५ अगस्त को वह समुद्री यात्रा से इँग्लैड रवाना हो गए। इसके पश्चात दादा साहेब के बड़े पुत्र जो कि उस समय गवर्नमैंट लॅा कॅालेज बम्बई में वकालत की पढ़ाई कर रहे थे, अपनी माता को दादा साहेब की अचानक रवानगी के बारे में बता नहीं पाए और उनकी माता ने उन पर इसके बारे मे दोषारोपण किया। वह यह समझ नहीं पाईं कि समय बदल गया है।
दादा साहेब दो वर्ष से अधिक समय तक इँग्लैंड में रहे और वापस आने पर भी वह सरकार की चौकसी में ही थे। इसी लिए साईं बाबा ने उन्हें १९११-१२ में लगभग साढ़े तीन महीने तक शिरडी में ही रोक कर रखा। लक्ष्मीबाई भी दादा साहेब के साथ शिरडी में ही थीं और जैसा कि हमें श्री साईं सत्चरित्र से पता चलता है कि दादा साहेब शिरडी में लगभग चार मॅास ही रहे, और बाबा की आज्ञा मिलने पर उन्होंने वहाँ से प्रस्थान किया, परन्तु लक्ष्मीबाई वहाँ सात मॅास रहीं। अतः उन्हें परिस्थिति को समझने और उसे स्वीकारने में उन्हें लँबा समय लगा और वह स्वाभाविक रूप से उस समय प्रसन्न नहीं थीं। १-२-१९१२ को बाबा के द्वारा दीक्षित को लक्ष्मीबाई को २०० रुपये देने के लिए दिए गए निर्देश के विषय में १९२३-२४ में दादा साहेब ने जो पश्च दृष्टि दिखाई और कहा कि इसका उद्देश्य लक्ष्मीबाई को "दीनता" और "सब्र" का पाठ पढ़ाना था, उसे इसी पृष्ठभूमि और सँदर्भ में समझा जाना चाहिए।
जय साईं राम