ॐ साईं राम
१४ फरवरी १९१२-
मैं जल्दी उठा, काँकड आरती में सम्मिलित हुआ, और इस बात ने मुझे बहुत उलझाया कि चावडी छोडते समय साईं बाबा ने अपने सटके से पूर्व, उत्तर और दक्षिण की ओर इशारे किए। फिर उन्होंने हमेशा की तरह कटु शब्दों का प्रयोग किया। हम हमेशा की तरह अपनी पँचदशी के पाठ की सँगत में सम्मिलित हुए, साईं बाबा के बाहर जाते हुए दर्शन किए, और हमेशा की तरह बाद में मस्जिद गए। साईं बाबा ने दो कहानियाँ सुनाईं।
उनमें से एक इस तरह थी कि एक यात्री था, जिसे प्रातः एक दुष्ट आत्मा (राक्षस) ने टोका। यात्री ने इसे एक बुरा शगुन समझा, किन्तु आगे चलने पर उसे दो कुँऐं मिले जिनके ठँडे पानी ने उसकी प्यास बुझाई। जब उसे भूख लगी तब उसे एक किसान मिला जिसने अपनी पत्नि के परामर्श पर उसे खाना दिया। जब उसने पके हुए मक्के के खेत को देखा तो उसने हरदा खाने की इच्छा जाहिर की। खेत के मालिक ने उसे वह दिया, अतः यात्री खुश हुआ और खुशी से धूम्रपान करता हुआ आगे बढ गया। जिस जँगल में से वह जा रहा था, उसे एक बाघ मिला, उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया और उसने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। बाघ बहुत विशालकाय था , और उसे ढूँढ रहा था। उसी समय साईं बाबा का वहाँ से गुज़रना हुआ, उन्होंने यात्री की हिम्मत बढाई, उसे बाहर निकाला और उसके रास्ते पर डाल कर कहा कि "बाघ तुम्हें तब तक नुकसान नहीं पहुँचायेगा जब तक तुम उसे किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाओगे।"
दूसरी कहानी इस तरह थी कि साईं बाबा के चार भाई थे, उनमें से एक बाहर जा कर, भिक्षा माँग कर पका हुआ भोजन, रोटी और मक्कई ले कर आता था। उसकी पत्नि उनके पिता और माता को सिर्फ थोडा सा देती थी, पर सभी भाइयों को भूखा रखती थी। साईं बाबा को तब एक ठेका मिला, वे धन ले कर आए और सब को जिनमें वह खुशहाल भाई भी शामिल था, भोजन मिला। बाद में उस भाई को कुष्ठरोग हो गया। सभी ने उसे नकार दिया। पिता ने उसे निकाल दिया। तब साईं बाबा ही उसको भोजन कराया करते थे, और उसकी सुविधाओं का ख्याल रखा करते थे। अँततः भाई मर गया।
दोपहर की आरती रोज़ की तरह सम्पन्न हुई, और उसके बाद हमने भोजन किया तथा मैंने थोडा आराम किया। शिवानन्द शास्त्री और विजयदुर्ग के ठाकुर आज चले गए। स्थानीय प्रधान के व्याकी ने आज सबको भोजन के लिए बुलाया। मैंने जाने से मना कर दिया परन्तु बाकी सब चले गए। साईं बाबा ने शाम की सैर के समय पूछा कि मैं क्यों नहीं गया और मैंने उन्हें सच बताया कि मैं एक दोपहर के समय में दो बार भोजन नहीं पचा सकता।
साईं बाबा चिंता में डूबे हुए दिखाई दिए, पूर्व और पश्चिम की ओर निरँतर टकटकी लगा कर देखते रहे और रोज़ की तरह "वाडे को जाओ" कह कर हम सबको विदा कर दिया। रात को भीष्म के भजन हुए और दीक्षित ने रामायण पढी।
जय साईं राम
१४ फरवरी १९१२-
मैं जल्दी उठा, काँकड आरती में सम्मिलित हुआ, और इस बात ने मुझे बहुत उलझाया कि चावडी छोडते समय साईं बाबा ने अपने सटके से पूर्व, उत्तर और दक्षिण की ओर इशारे किए। फिर उन्होंने हमेशा की तरह कटु शब्दों का प्रयोग किया। हम हमेशा की तरह अपनी पँचदशी के पाठ की सँगत में सम्मिलित हुए, साईं बाबा के बाहर जाते हुए दर्शन किए, और हमेशा की तरह बाद में मस्जिद गए। साईं बाबा ने दो कहानियाँ सुनाईं।
उनमें से एक इस तरह थी कि एक यात्री था, जिसे प्रातः एक दुष्ट आत्मा (राक्षस) ने टोका। यात्री ने इसे एक बुरा शगुन समझा, किन्तु आगे चलने पर उसे दो कुँऐं मिले जिनके ठँडे पानी ने उसकी प्यास बुझाई। जब उसे भूख लगी तब उसे एक किसान मिला जिसने अपनी पत्नि के परामर्श पर उसे खाना दिया। जब उसने पके हुए मक्के के खेत को देखा तो उसने हरदा खाने की इच्छा जाहिर की। खेत के मालिक ने उसे वह दिया, अतः यात्री खुश हुआ और खुशी से धूम्रपान करता हुआ आगे बढ गया। जिस जँगल में से वह जा रहा था, उसे एक बाघ मिला, उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया और उसने खुद को एक गुफा में छुपा लिया। बाघ बहुत विशालकाय था , और उसे ढूँढ रहा था। उसी समय साईं बाबा का वहाँ से गुज़रना हुआ, उन्होंने यात्री की हिम्मत बढाई, उसे बाहर निकाला और उसके रास्ते पर डाल कर कहा कि "बाघ तुम्हें तब तक नुकसान नहीं पहुँचायेगा जब तक तुम उसे किसी तरह का नुकसान नहीं पहुँचाओगे।"
दूसरी कहानी इस तरह थी कि साईं बाबा के चार भाई थे, उनमें से एक बाहर जा कर, भिक्षा माँग कर पका हुआ भोजन, रोटी और मक्कई ले कर आता था। उसकी पत्नि उनके पिता और माता को सिर्फ थोडा सा देती थी, पर सभी भाइयों को भूखा रखती थी। साईं बाबा को तब एक ठेका मिला, वे धन ले कर आए और सब को जिनमें वह खुशहाल भाई भी शामिल था, भोजन मिला। बाद में उस भाई को कुष्ठरोग हो गया। सभी ने उसे नकार दिया। पिता ने उसे निकाल दिया। तब साईं बाबा ही उसको भोजन कराया करते थे, और उसकी सुविधाओं का ख्याल रखा करते थे। अँततः भाई मर गया।
दोपहर की आरती रोज़ की तरह सम्पन्न हुई, और उसके बाद हमने भोजन किया तथा मैंने थोडा आराम किया। शिवानन्द शास्त्री और विजयदुर्ग के ठाकुर आज चले गए। स्थानीय प्रधान के व्याकी ने आज सबको भोजन के लिए बुलाया। मैंने जाने से मना कर दिया परन्तु बाकी सब चले गए। साईं बाबा ने शाम की सैर के समय पूछा कि मैं क्यों नहीं गया और मैंने उन्हें सच बताया कि मैं एक दोपहर के समय में दो बार भोजन नहीं पचा सकता।
साईं बाबा चिंता में डूबे हुए दिखाई दिए, पूर्व और पश्चिम की ओर निरँतर टकटकी लगा कर देखते रहे और रोज़ की तरह "वाडे को जाओ" कह कर हम सबको विदा कर दिया। रात को भीष्म के भजन हुए और दीक्षित ने रामायण पढी।
जय साईं राम