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Wednesday, April 25, 2012

ॐ साईं राम


१ फरवरी १९१२-


मुझे उठने में कुछ देर तो हुई, किन्तु मैं प्रार्थना करने में और समय पर 'परमामृत' के पठन में सम्मिलित होने में सफल रहा। आज कार्य पूरा हो गया और कल हम उसमें सँशोधन करना शुरू करेंगे। फिर मैं मस्जिद गया, साईं महाराज के पास बैठा और साठे वाडा तक जाने में उनका साथ दिया। वहाँ लोग साईं महाराज को प्रणाम करने के लिए पहले से ही एकत्रित थे। मैं भी उनके समूह में सम्मिलित हो गया और साईं महाराज को नमस्कार किया, फिर बापू साहेब जोग के निवास स्थान पर जा कर पँचदशी का पाठ करते हुए पहले दस छँदो की व्याख्या की, जिनमें कि सम्पूर्ण पुस्तक का निचोड है। इसके पश्चात मैं अपने आवास पर लौटा, कुछ पत्र लिखे, उन्हें भेजा और दोपहर की आरती में सम्मिलित होने के लिए मस्जिद में गया। आरती भली भाँति सँम्पन्न हुई। अहमदनगर के श्री मानेकचँद जिन्होंने इस वर्ष वकालत की पढाई पूरी की है, यहाँ आए और पूरा दिन रूके। आरती से लौटने के बाद हमने भोजन किया। मैंने बैठ कर सखरेबा की सँपादित ज्ञानेश्वरी का पाठ किया। दुर्भाग्यवश, अन्य सँस्करणों के समान उसने मेरी मुश्किलों का समाधान नहीं किया। बाद में दीक्षित ने रामायण पढी।


शिरडी के मामलेदार श्री साने, उप जिलाधीश श्री साठे और उप प्रभागीय अधिकारी आए और कुछ देर बैठ कर बातें की। उनके जाने के बाद हमने रामायण का पाठ पुनः प्रारँभ किया, शाम को हम साईं बाबा के शाम की सैर के समय उनसे मिलने मस्जिद गए। वाडे की आरती के बाद हम शेज आरती में सम्मिलित हुए। भीष्म ने भजन नहीं गाए अपितु उन्होंने सखाराव की प्राकृत भागवत पढी। रात को दीक्षित ने रामायण पढी।

आज शाम को जब हम मस्जिद में साईं बाबा के शाम की सैर से पूर्व मस्जिद में इकट्ठा हुए थे, उस समय साईॅ साहेब ने श्रीमान दीक्षित को कहा कि वह मेरी पत्नि को दो सौ रुपये दे देवें, जो उस समय साईं साहेब के पैर धो रहीं थीं। यह निर्देश समझाया नहीं जा सकता। क्या इसका अर्थ यह है कि मुझे अपना जीवन दान के सहारे काटना पडेगा? मैं मृत्यु को इससे बेहतर समझूँगा। मुझे लगता है कि साईं साहेब मेरे अहम को नियँत्रित करके अँततः उसे नष्ट कर देना चाहते हैं। इसीलिए वे मुझे गरीबी और दूसरों के दान का अभ्यस्त बनाना चाहते हैं।

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मैंने १ फरवरी १९१२ को डायरी में लिखे पृष्ठ को पढा। मैंने अपनी भावनाओं को सही प्रकार से व्यक्त किया है। हमारे सदगुरू साईं महाराज ने निर्देश दिया। वे अँतरयामी थे और वे सब कुछ, यहां तक कि मेरे अँतःकरण में दबे हुए विचारों को भी भली भाँति जानते थे। उन्होंने उस निर्देश को कार्यान्वित करने को नहीं कहा। अब मेरा ध्यान इस विषय की ओर खींचा गया, मुझे ऐसा लगता है, कि उस समय मेरी पत्नि को दीनता ओर परिश्रम का जीवन पसँद नहीं था। काका साहेब दीक्षित उस जीवन को अपना चुके थे और प्रसन्न थे। इसीलिए साईं महाराज ने उन्हें मेरी पत्नि को दो सौ रुपये- 'दीनता' और 'सब्र' देने को कहा।


जय साईं राम