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Monday, April 30, 2012

ॐ साईं राम


८ फरवरी १९१२-


मैं काँकड आरती के लिए उठा, और उसके बाद अपनी दिनचर्या के कार्य प्रारँभ किए। नारायणराव बामनगाँवकर को लौटने की अनुमति मिल गई। उनके पास अमरावती में देने के लिए मेरी पत्नि की ओर से दिया गया कुछ सामान भी है, और वे वास्तव में ताँगा ले कर चले गए। उनके चलने से पूर्व गणपतराव, मेरे एक सँबन्धी, खरबरी के पुत्र जो सतारा के मुतालिक हैं, मिलने आए। वे तिल सक्रान्ति के लिए तिल से बने हुए पारँपरिक उपहार लाए। इनमें बहुत कलात्मक रूप से तैयार की गई तिल और चीनी की बनी वस्तुऐं हैं।


आज तीन सप्ताह में पहली बार बलवन्त ने बाहर मस्जिद तक जाने का साहस किया, और अपना सिर साईं महाराज के चरणों में रखा। उसमें काफी सुधार हुआ है। गणपतराव चाहते थे कि मेरा पुत्र बलवन्त रँगपँचमी के लिए उनके साथ सतारा जाए। मैंने उन्हे साईं महाराज के पास भेज दिया।


दोपहर की आरती रोज़ की तरह सम्पन्न हुई, सिवाए इसके कि आरती के अन्त में साईं साहेब ने क्रोध का प्रदर्शन किया। हमने दोपहर का समय दीक्षित की रामायण पढने और मेरे दासबोध के पठन में बिताया। सुबह हमारी पँचदशी की सँगत भी हुई थी।


हमने साईं महाराज के दर्शन उनकी शाम की सैर के समय किए। कोई एक श्री कुलकर्णी बम्बई से आए हैं। उनकी एक प्रयोगशाला है जिसमें वह कच्ची धातु आदि का परीक्षण करते हैं। वे बोले कि उन्होंने मुझे १९०७ में सूरत में देखा था। हमने बैठकर पुरानी चीज़ों के बारे में बातचीत की। रात में भीष्म के भजन हुए, और दीक्षत ने रामायण पढी।


जय साईं राम