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Tuesday, April 10, 2012

ॐ साईं राम


१६ जनवरी १९१२-


प्रातः मैं रोज़ की भाँति उठा, प्रार्थना की और 'परमामृत' के पठन के बाद अपने दैनिक कार्य सम्पन्न किए। यह वेदान्त पर मराठी भाषा में रचित एक अत्यँत चर्चित पुस्तक है। उपासनी ने इसका पाठ किया और मैंने, बापू साहेब जोग और भीष्म ने सुना। पाठ बहुत रोचक था और जहाँ आवश्यकता थी वहाँ मैंने उसकी व्याख्या की। मैंने साईं महाराज के बाहर जाते हुए दर्शन किए किन्तु जब वे मस्जिद में वापिस लौटे तब मैं वहाँ देर से पहुँचा। मेरे देर से पहुँचने पर बाबा ने क्रोध नहीं दर्शाया अपितु मेरे साथ अत्यँत सकारात्मक दयालु व्यवहार किया। मेधा अभी भी अस्वस्थ है, अतः उसे जल्दी मस्जिद आने की आज्ञा नहीं मिली। परिणामतः दोपहर की आरती जब मेधा आया तब देर से शुरू हुई।


वापिस आकर भोजन करते हुए ४ बज गए। दीक्षित ने कुछ देर रामायण पढी। फिर हम साईं महाराज के दर्शन के लिए मस्जिद गए। बाबा ने हमें ज़्यादा देर बैठने की अनुमति नहीं दी और स्वँय भी शीघ्रता से सैर के लिए निकल गए। उन्होंने हमें वाडे में लौट जाने को कहा। हमें समझ में नहीं आया कि साईं महाराज ने ऐसा व्यवहार क्यों किया।


परन्तु जब हम वाडे में लौटे तब पता चला दीक्षित का नौकर हरी जो कुछ दिन पूर्व अस्वस्थ महसूस कर रहा था, चल बसा। उस रोज़ हमने किसी को उपासनी से दवा लाने भेजा भी था किंतु वे नहीं मिले थे। अन्ततः हरी की मृत्यु हो गई। हमने वाडे में रोज़ की आरती की और फिर रोज़ की तरह शेज आरती में सम्मिलित हुए। साईं महाराज ने हरी के प्रति विशेष कृपा दिखाई और उसके प्रति भाव पूर्ण शब्द कहे । राम मारूति भी साईं महाराज के विशेष कृपा पात्र हैं।


मस्जिद से हम सँतुष्ट हो कर लौटे । आधी रात से कुछ देर पूर्व ही हम हरी का अँतिम सँस्कार कर पाए। उसके लिए लकडी इकट्ठा करने में मुश्किल हुई। बापाजी ने किसी प्रकार लकडी की व्यवस्था की और अँतिम सँस्कार हो पाया। यदि माधवराव देशपाँडे यहाँ होते तो इतनी मुश्किल ना होती, लेकिन वे अपनी पत्नि और बच्चों को लेने नगर गए हैं। सँस्कार में बहुत देर लगी। रात को ना तो भीष्म के भजन हुए और ना दीक्षित का पुराण ही हुआ।


जय साईं राम