ॐ साईं राम
द्वितीय आवास, दिसँबर १९११-
दादा साहेब खापर्डे का शिरडी में द्वितीय आवास सबसे लम्बी अवधि, लगभग सौ दिन का था। यह तथ्य महत्वपूर्ण है और परीक्षण के योग्य है कि यद्यपि दादा साहेब और उनकी पत्नि बार बार अमरावती लौट जाना चाहते थे परन्तु साईं बाबा ने उन्हें शिरडी में ही रोक कर रक्खा और जाने नहीं दिया। और जबकि दादा साहेब का अपने सदगुरू पर अथाह विश्वास था, दादा साहेब ने कर्तव्यनिष्ठा से साईं बाबा के आदेशों का पालन पूर्ण आस्था से और भली भाँति यह मान कर किया कि बाबा का निर्णय उनके हित में ही था।
अब वो क्या कारण था कि साईं बाबा ने दादा साहेब को इतने लम्बे समय तक शिरडी में रोक कर रखा? पाठकगण यह तो जानते ही हैं कि दादा साहेब लोकमान्य तिलक के प्रमुख सहायक और समर्थक थे। तिलक को २४ जून १९०८ को विद्रोह का दोष लगा कर गिरफ्तार कर लिया गया था। उनका मुकद्दमा १३ जुलाई, १९०८ को शुरू हुआ, उन्हें दोषी ठहराया गया और २२ जुलाई १९०८ को उन्हें छह वर्ष के कारागारवास की सज़ा सुनाई गई। इसी के कुछ दिन बाद ही १५ अगस्त १९०८ को दादा साहेब ने जलयान द्वारा इंग्लैंड को इसलिए प्रस्थान किया जिससे वह प्रीवी काउन्सिल के सम्मुख बम्बई उच्च न्यायलय के द्वारा लोकमान्य पर लगाए गए दोष के निर्णय के विरूद्ध दर्खाव्स्त कर सकें। वह ३१ अगस्त १९०८ को डोवर पहुँचे, और तुरँत ही लँदन को प्रस्थान किया।
योजना के अनुरूप उन्होंने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय के विरूद्ध प्रीवी काउन्सिल के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया परन्तु प्रीवी काउन्सिल ने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय को खारिज करने से मना कर दिया। खापर्डे का अगला कदम ब्रिटेन के उच्च सदन के सम्मुख याचिका को रखना था ,पर समर्थन के अभाव में वह भी रद्द हो गई। सैक्रैट्री आफ स्टेट लार्ड मॅारले को भेजा गया निवेदन पत्र भी बेकार साबित हुआ। १५ सितँबर १९१० को दो साल से अधिक इँग्लैंड में रहने के बाद खापर्डे रँगून होते हुए जलयान से भारत के लिए चले। उन्होंने तिलक के विरूद्ध दिए गए निर्णय को बदलवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। वह नायक को छुड़वाने के लिए छेड़े गए अभियान के लिए स्वयँ अपने खर्च पर इँग्लैंड गए। वहाँ उनके द्वारा किए गए दुस्साध्य परिश्रम ने ना केवल अपने नेता के प्रति उनकी वफादारी और भक्ति को ही उजागर किया, अपितु उनके निःस्वार्थ भाव का पता चला और यह भी कि जिस बात को वह न्यायोचित्त समझते थे, उसके लिए अपनी ऊर्जा , समय और धन खर्च करने को भी तैयार रहते थे।
दादा साहेब की माता जी का स्वर्गवास २७ सितँबर १९१० को हुआ, जबकि वह समुद्री यात्रा के मध्य में थे। खापर्डे १६॰१०॰१९१० को रँगून पहुँचे और मँडाले जेल में २२॰१०॰ १९१० को तिलक से मिले। २७॰१०॰ १९१० को वह कलकत्ता पहुँचे और दो साल दो महीने बाईस दिन की अनुपस्थिति के बाद ५॰११॰१९१० को घर लौटे।
आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
जय साईं राम
द्वितीय आवास, दिसँबर १९११-
दादा साहेब खापर्डे का शिरडी में द्वितीय आवास सबसे लम्बी अवधि, लगभग सौ दिन का था। यह तथ्य महत्वपूर्ण है और परीक्षण के योग्य है कि यद्यपि दादा साहेब और उनकी पत्नि बार बार अमरावती लौट जाना चाहते थे परन्तु साईं बाबा ने उन्हें शिरडी में ही रोक कर रक्खा और जाने नहीं दिया। और जबकि दादा साहेब का अपने सदगुरू पर अथाह विश्वास था, दादा साहेब ने कर्तव्यनिष्ठा से साईं बाबा के आदेशों का पालन पूर्ण आस्था से और भली भाँति यह मान कर किया कि बाबा का निर्णय उनके हित में ही था।
अब वो क्या कारण था कि साईं बाबा ने दादा साहेब को इतने लम्बे समय तक शिरडी में रोक कर रखा? पाठकगण यह तो जानते ही हैं कि दादा साहेब लोकमान्य तिलक के प्रमुख सहायक और समर्थक थे। तिलक को २४ जून १९०८ को विद्रोह का दोष लगा कर गिरफ्तार कर लिया गया था। उनका मुकद्दमा १३ जुलाई, १९०८ को शुरू हुआ, उन्हें दोषी ठहराया गया और २२ जुलाई १९०८ को उन्हें छह वर्ष के कारागारवास की सज़ा सुनाई गई। इसी के कुछ दिन बाद ही १५ अगस्त १९०८ को दादा साहेब ने जलयान द्वारा इंग्लैंड को इसलिए प्रस्थान किया जिससे वह प्रीवी काउन्सिल के सम्मुख बम्बई उच्च न्यायलय के द्वारा लोकमान्य पर लगाए गए दोष के निर्णय के विरूद्ध दर्खाव्स्त कर सकें। वह ३१ अगस्त १९०८ को डोवर पहुँचे, और तुरँत ही लँदन को प्रस्थान किया।
योजना के अनुरूप उन्होंने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय के विरूद्ध प्रीवी काउन्सिल के समक्ष प्रार्थना पत्र प्रस्तुत किया परन्तु प्रीवी काउन्सिल ने बम्बई उच्च न्यायलय के निर्णय को खारिज करने से मना कर दिया। खापर्डे का अगला कदम ब्रिटेन के उच्च सदन के सम्मुख याचिका को रखना था ,पर समर्थन के अभाव में वह भी रद्द हो गई। सैक्रैट्री आफ स्टेट लार्ड मॅारले को भेजा गया निवेदन पत्र भी बेकार साबित हुआ। १५ सितँबर १९१० को दो साल से अधिक इँग्लैंड में रहने के बाद खापर्डे रँगून होते हुए जलयान से भारत के लिए चले। उन्होंने तिलक के विरूद्ध दिए गए निर्णय को बदलवाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी। वह नायक को छुड़वाने के लिए छेड़े गए अभियान के लिए स्वयँ अपने खर्च पर इँग्लैंड गए। वहाँ उनके द्वारा किए गए दुस्साध्य परिश्रम ने ना केवल अपने नेता के प्रति उनकी वफादारी और भक्ति को ही उजागर किया, अपितु उनके निःस्वार्थ भाव का पता चला और यह भी कि जिस बात को वह न्यायोचित्त समझते थे, उसके लिए अपनी ऊर्जा , समय और धन खर्च करने को भी तैयार रहते थे।
दादा साहेब की माता जी का स्वर्गवास २७ सितँबर १९१० को हुआ, जबकि वह समुद्री यात्रा के मध्य में थे। खापर्डे १६॰१०॰१९१० को रँगून पहुँचे और मँडाले जेल में २२॰१०॰ १९१० को तिलक से मिले। २७॰१०॰ १९१० को वह कलकत्ता पहुँचे और दो साल दो महीने बाईस दिन की अनुपस्थिति के बाद ५॰११॰१९१० को घर लौटे।
आगे जारी रहेगा॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰
जय साईं राम